Saddfiya Manzil - 1 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | सदफ़िया मंज़िल - भाग 1

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सदफ़िया मंज़िल - भाग 1

भाग -1

प्रदीप श्रीवास्तव

सदफ़िया मंज़िल का दरवाज़ा खुला हुआ है। वह भी सदफ़िया की तरह बहुत बूढ़ा हो चुका है। जगह-जगह से चिटक गया है। यह चिटकन और बढ़ कर दरवाज़े को ज़मीन न सुँघा दे, इस लिए जगह-जगह टीन की पट्टियों को कीलों से जड़ा गया है। ये टीन की पट्टियाँ भी जंग (मुर्चा) खा-खा कर कमज़ोर पड़ती जा रही हैं। सदफ़िया दरवाज़े की चिटकन को टीन, कीलों के ज़रिए जितना रोकने की कोशिश कर रही है, वह उसके शरीर की झुर्रियों की तरह उतनी ही बढ़ती जा रही है। 

सदफ़िया जब-जब उसे ग़ौर से देखती है तो ऐसा लगता है, जैसे अपनी जवानी की तरह उसकी भी जवानी याद कर रही है। जब अपनी मज़बूती से वह इस्पाती होने का एहसास देता था। उस वक़्त वह बड़ी अकड़ से कहती थी कि, “पक्की साखू का बना है। सौ साल तक हिलने वाला नहीं।”

लेकिन सदफ़िया को अपनी तब की ग़लतफ़हमी अब समझ में आ रही है। हर झुर्री, चिटकन उसे मुँह चिढ़ाती, सवाल करती नज़र आती है। 

मानो पूछ रही हो, क्यों सदफ़िया, कहाँ गई तुम्हारी वो जवानी, हुस्न, ताक़त, पैसे के दम पर पाले आदमी, जिनके सामने तब तुम्हें यह समझ में नहीं आता था कि समय की हवाओं का झोंका समय आने पर सब-कुछ हिला देता है। क्या लकड़ी, क्या इस्पात, क्या हुस्न, क्या इंसान, क्या राजे-महाराजे, साम्राज्य, सबका एक दिन उसके क़दमों में लोटना तय है। 

कहाँ है अब तुम्हारा वह हुस्न जिसके लिए तब रामपूरी छुरियाँ चल जाया करती थीं। उस हुस्न का रसपान करने वालों से मुँह माँगी क़ीमत वसूलती थी। गोरे जब बुलाते थे तो एक रात में ही हफ़्ते भर की कमाई कर लेती थी। हालाँकि पैसा उनकी जेब से निकलता था जो उनसे अपना हित साधने के लिए तुमको साधन की तरह साधते हुए उनके पास भेजते थे। तब तुम्हारी तरह, तुम्हारी यह सदफ़िया मंज़िल भी गुलज़ार रहती थी। लेकिन आज . . . 

आज कोरोना काल में तो हालत एकदम से ज़्यादा बदतर हो गई है। हाल यह है कि तुम्हारी इस मंज़िल का मुख्य दरवाज़ा ही इस्पाती पत्तियों के सहारे खड़ा अपनी टूटती साँसों की कहानी बयाँ कर रहा है। 

मंज़िल में अंदर क़दम रखते ही पड़ने वाले पहले बड़े कमरे, उसके बीच से अंदर जाते रास्ते, वहाँ दोनों तरफ़ बने छोटे-छोटे छहों कमरे, फिर ऊपर पहली मंज़िल तक जाता जीना, वहाँ बने पाँचों कमरे। वहाँ से दूसरी मंज़िल को गया जीना, और उस दूसरी मंज़िल पर बने तीनों कमरे, यह सबके सब तुम्हारी झुर्रियों से होड़ लेते ही दिख रहे हैं। 

 एक समय वह भी था जब यह कमरे कभी ख़ाली नहीं रहते थे। इनकी रौनक़ देखते ही बनती थी। लेकिन आज . . . आज न रौनक़ है, न कमरों में कोई हलचल। हर तरफ़ कुछ दिखता है तो सिर्फ़ झुर्रियों में डूबा, नीम उदासियों को ढोता तुम्हारा चेहरा . . . 

कभी अपने हुस्न से गोरों की भी धड़कन रोक देने वाली यही सदफ़िया अब दीवार आदि का सहारा लेकर ही मुश्किल से चल-फिर पाती है। हमेशा नीचे ही रहती है। आठ-दस बरस से ज़्यादा हो गए उसे ऊपर की किसी मंज़िल पर गए। 

नीचे ही बड़े कमरे में बिस्तर पर पड़ी रहती है। उसके साथ अब भी बनी रहती हैं उसकी सबसे पुरानी बेटियाँ। इन बेटियों को उसने कब और कैसे अपने धंधे में शामिल कर लिया था, अब यह भी उसे याद नहीं है। इन बेटियों की भी अब कई बेटियाँ हैं। लेकिन किसी को अपने पिता की कोई जानकारी नहीं है। कुल आठ नौ लोगों के बावजूद मंज़िल में गहन सन्नाटा पसरा है। 

इस सन्नाटे में कुछ हलचल पैदा करती सदफ़िया अंदर आँगन से दीवार टेकते-टेकते आकर अपने बिस्तर पर बैठ गयी। फिर दरवाज़े पर पड़े ज़र्जर से पर्दे को हटाने का इशारा किया तो पड़नातिन रज़िया ने पर्दा हटा दिया। वह आकर बैठी ही थी कि तभी दरवाज़े पर लम्बी-तगड़ी हँसली ने ताली बजाते हुए कहा, “अरे सब कहाँ गई रे।”

यह पूछती हुई वह कमरे में दाख़िल हो गई। वहाँ सदफ़िया को बैठी देख कर उसने दो-तीन बार ताली ठोंकने के बाद कहा, “अरे बुढ़िया तू कब मरेगी? तेरे से कोरोना मिलने को नहीं आया क्या? इस धरती का अभी और कित्ता राशन खाएगी आंय।”

यह कहती हुई वह सामने पड़े तख़्त पर बैठ गई। सदफ़िया ने उसे जो जवाब दिया उसे वह ठीक से सुन नहीं पाई। दरअसल सदफ़िया भी उसकी बात को कम सुनाई देने के कारण ठीक से समझ ही नहीं पाई थी। जो थोड़ा-बहुत समझी उसी के हिसाब से दन्त-रहित अपने पोपले मुँह से जवाब दे दिया था। जिसे हँसली नहीं समझ पाई तो बग़ल में बैठी रफ़िया से पूछा, “यह बुढ़िया क्या बोली रे?” 

रफ़िया ने हँसते हुए कहा, “वह कह रहीं हैं कि, अभी इक्कीस साल और जिएँगे।”

यह सुनते ही हँसली ने आश्चर्य से मुँह बड़ा सा खोलते हुए कहा, “क्या? अरे बुढ़िया को सौ साल से ज़्यादा हो गए कमाठीपुरा का, इस धरती का राशन खाते-खाते। गोरे चले गए। देश के टुकड़े देशियों से ही मिल कर, कर गए। टुटही-फुटही आज़ादी भी आ गई। बम्बई से मुंबई हो गया। कोरोना आ के ता-ता थैया कर रहा है, ये अभी और क्या-क्या होने तक इस मंज़िल में रहेगी। सदफ़िया से कभी इसे रफ़िया मंज़िल होने देगी या मंज़िल भी साथ ही लेकर जाएगी आंय।”

अपनी बात पूरी करते ही हँसली फिर ताली ठोंक कर हँस पड़ी। उसकी ज़ोरदार ताली से कमरा गूँज गया। सदफ़िया ने उसकी बात का फिर कोई जवाब दिया। लेकिन इस बार भी हँसली समझ नहीं पाई। वह कुछ बोलती कि उसके पहले ही रफ़िया ने उससे कहा, “ए हँसली अब बस कर, फूफी को बुरा लग रहा है। अपनी बता इस लॉक-डाउन में कहाँ से चली आ रही है। तुझे पुलिस नहीं मिली क्या?” 

“मिली क्यों नहीं, इतनी ज़िन्दगी में पहला ऐसा टाइम देख रही हूँ कि क़दम क़दम पर पुलिस लगी हुई है। घर के बाहर क़दम निकालो नहीं कि मुए यमदूत से हाज़िर हो जाते हैं। नहीं तो चाहे जिसको मारो, काटो, लूटो, आराम से सबको आँखें तरेरते हुए निकल जाओ। उसके बाद लकीर पीटती, पों-पों करती पुलिस आती थी निर्दोषों को लाठियाने। लेकिन अब तो पूछो मत, जहाँ मिली, तो ऐसे प्यार से बोली घर जाइए जैसे उनकी ख़सम हूँ। दसियों जगह पूछा कहाँ जा रहे हो। हर बार मैं उनके मुँह पर ताली ठोंक कर कहती, ’तेरे लॉक-डाउन में सदफ़िया आपा निकल गई तो, उसी को बचाने जा रही हूँ, चल आ, तू भी चल’।”

हँसली ने जिस तरह एक भद्दे इशारे के साथ अपनी बात कही, उससे वहाँ बैठी रफ़िया सहित सभी हँस पड़ीं। सदफ़िया सवालों भरी निगाहों से सभी को देखती रही। सबसे छोटी ज़किया मुँह पर हाथ रख कर बोली, “तुझे उनसे डर नहीं लगता कि उन्होंने कहीं पकड़ कर जेल में डाल दिया तो।” 

हँसली ने हँसते हुए कहा, “अरे डाल दे तो बहुत ही अच्छा है। सौ तालियाँ ठोकूँगी उनके मुँह पर हाँ . . . कम से कम दोनों टाइम खाना तो मिलेगा। कुछ काम-धाम तो करने को मिलेगा। डेढ़ महीने से काम-धंधा सब बंद है। सारे पैसे, राशन, दारू सब ख़त्म हो गया है। दस दिन से दारू की महक तक नहीं मिली है। हफ़्ते भर से हम पाँचों को दोनों टाइम खाना तो वो मुआ सदा वत्सले मातृ-भूमि वाला शाखा बाबू खिला रहा है। नहीं तो हम-सब भूखों मर जाते, हाँ।” 

 उसकी यह बात सुनकर ज़किया ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, “ये सदा वत्सले वाला शाखा बाबू कौन है।”

“अरे वही शाखा वाले बाबू, आर.एस.एस. वाले। परसों मैंने ताली ठोंक कर कहा, 'अरे क्यों हम-सब की इतनी फ़िक्र करते हो, कब तक खिलाओगे। तुम्हारा राशन ख़त्म हो गया तो।’ इस पर वह ऐसे अपनापन के साथ बोला, जैसे मैं उसके ही घर-परिवार की हूँ। कहा, 'हँसली जब-तक मेरे घर में चूल्हा जलेगा तब-तक खिलाता रहूँगा।'  तो मैंने कहा, 'जब चूल्हा बंद हो जाने पर खाना बंद ही हो जाना है, तो काहे को हमारी आदत ख़राब कर रहे हो। अपने परिवार का राशन हम पर ख़र्च कर रहे हो। जब आज नहीं कल भूखों मरना ही है, तो जैसे कल, वैसे आज।' मगर उसने ऐसी बात कही कि मेरा कलेजा ही निकाल ले गया।”

“अरे! ऐसा क्या बोल दिया?” 

हँसली ने रफ़िया के इस प्रश्न का उत्तर देने के बजाय कहा, “हाय-हाय, सब बात पर बात करे जा रही हैं, अभी तक एक कप चाय कौन कहे पानी तक नहीं पूछा किसी ने। ये बुढ़िया भी बैठी-बैठी टुकुर-टुकुर देख रही है। एक बार भी नहीं बोली। पहले तो आते ही चिल्लाती थी ए चाय बना ला। आज क्या हो गया, चाय ख़त्म हो गई कि पानी। आंय।”

हँसली ने ज़ोरदार आवाज़ में कहते हुए तीन-चार तालियाँ ठोंक दीं। 

सभी फिर हँस पड़ीं। इसी बीच रफ़िया ने ज़किया से चाय बनाने के लिए बोलते हुए कहा कि, “ये लॉक-डाउन, ग्राहकों का टोटा ऐसे ही पड़ा रहा न, तो चाय ही नहीं, खाना-पानी, दवा-दारू के भी लाले पड़ने ही पड़ने हैं। रखा हुआ कितने दिन चलेगा। हमें लगता है, हम लोग कोरोना से नहीं भूख से ज़रूर मरेंगे।”